राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने हैदराबाद में पिछले 25 दिसंबर को संघ के विजय संकल्प शिविर में कहा,आरएसएसःभागवतमंत्र ''विश्व में और हमारे देश में भी रजस और असुर विजय का खेल चल रहा है, जो भारतीय परंपरा में निषिद्ध है.'' उनके इस भाषण के कई हलकों में सियासी मायने लगाए जा रहे हैं. हालांकि संघ के मुताबिक, भागवत के भाषण को किसी व्यक्ति या सरकार से जोडऩा उचित नहीं है, वे सिर्फ कार्यक्रम का नाम 'विजय संकल्प' रखने को लेकर बोल रहे थे. लेकिन भागवत ने जो कहा, उसके सियासी मायने भी निकल सकते हैं. इससे संघ के कुछ पदाधिकारी इनकार भी नहीं कर रहे.खासकर ऐसे हालात में जब देश में सीएए, एनआरसी को लेकर सियासत चल रही है तब भागवत के भाषण के उस अंश पर संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों में चर्चा जोरों पर है जिसमें वे रजस विजय का जिक्र और उसकी व्याख्या करते हैं. भागवत ने अपने भाषण में कहा है, ''रजस प्रवृत्ति के लोग बातें तो बड़ी अच्छी-अच्छी करते हैं. काम भी कभी-कभी अच्छे करते हैं, अगर उन कामों में उनका नाम हो. उनकी कीर्ति और प्रतिष्ठा होती है. उन्हें लोभ होता है कि दुनिया में उनका नाम हो...ऐसा करने के लिए वे लोगों का सदुपयोग भी करते हैं, लोगों से अच्छा कराते भी हैं या अपने स्वार्थ के लिए लोगों को लड़ाते भी हैं. उनके हृदय में भय पैदा कर अपना साधन सिद्ध करते हैं. उन लोगों का रूप कुछ और होता है लेकिन वास्तविकता निपट स्वार्थी अंत:करण की होती है. उनका (ऐसा करने वालों का) वैभव बढऩे, नाम बढऩे, कीर्ति बढऩे के बाद दूसरों का भला होता है तो ठीक या दूसरे दुख में पड़ जाएं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता.''लेकिन सवाल है कि संघ के इस कार्यक्रम को विजय संकल्प शिविर का नाम देने के पीछे प्रयोजन क्या है? संघ किस बात की विजय चाहता है, किस पर विजय चाहता है? संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं कि भागवत ने स्पष्ट किया है कि संघ, हिंदू समाज और भारत तीनों ही धर्म विजय चाहते हैं, जिसका मतलब है कि अपनी खुशी की जगह दूसरों के लिए खुशी तलाशी जाए. खुद को कष्ट में डालकर दूसरों को कष्ट से बाहर निकाला जाए.इसी भाषण में भागवत ने 'विविधता में एकता' की जगह 'एकता की ही विविधता' की बात की. भागवत का यह बयान 22 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस नारे 'विविधता में एकता, भारत की विशेषता' के ठीक तीन दिन बाद आया. भागवत ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भारत की विशेषता विविधता में एकता से एक कदम आगे है और वह है एकता की ही विविधता. इन दोनों में अंतर क्या है? संघ के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ''विविधता में एकता का मतलब है कि भारत में भाषा, इलाके और पूजा पद्धति अलग-अलग होते हुए भी सभी एक हैं. जबकि एकता में ही विविधता का मतलब है कि भारतीय एक हैं और उनकी भाषा, इलाके और पूजा पद्धति आदि अलग-अलग हैं.'' पहले में प्राथमिकता भाषा, इलाके और पूजा पद्धति की है और भारतीयता दूसरे पायदान पर है, जबकि दूसरी व्याख्या के मुताबिक भारतीयता पहली प्राथमिकता है और भाषा, इलाके या पूजा पद्धति दूसरे नंबर पर है.लेकिन बड़ा सवाल यह है कि भागवत ने इस वक्त यह बयान क्यों दिया? सियासी मामलों के जानकार एन. अशोकन कहते हैं, ''मोदी-2 सरकार आने के बाद सरकार जिस तेजी के साथ संघ के सभी वैचारिक मुद्दों को अंजाम तक पहुंचा रही है उससे संघ के दूरगामी वैचारिक मुद्दे एक के बाद एक खत्म होते जा रहे हैं. संघ वैचारिक रूप से भाजपा का पितृ संगठन है लेकिन वैचारिक रूप से भाजपा पर हावी होने के लिए संघ के पास अब अधिक विकल्प बचे नहीं हैं.'' संघ के सूत्रों का भी कहना है कि अनुच्छेद-370, राम मंदिर, समान नागरिक संहिता को लेकर संघ के पास भाजपा पर दबाव बनाने का विकल्प अब बचा नहीं है. इससे पहले कि संघ, घुसपैठियों को लेकर दबाव बनाता, सरकार ने इसे खत्म करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा दिए.भाजपा ऐसा अनायास नहीं कर रही है. दरअसल, 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से संघ कई बार वैचारिक मुद्दों पर सरकार के काम नहीं करने के लिए अपनी नाखुशी जता चुका है. आरक्षण जैसे मुद्दे को लेकर भी संघ चुनावों से ठीक पहले भाजपा पर परोक्ष रूप से हमला करता रहा है जिसका नुक्सान चुनाव में भाजपा को उठाना भी पड़ा है. 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले भागवत ने आरक्षण को लेकर बयान दिया था जिससे भाजपा को जबरदस्त नुक्सान उठाना पड़ा था. राम मंदिर निर्माण पर कानून नहीं बनाने की वजह से मंदिर निर्माण में हो रही देरी को लेकर भी संघ के दूसरे नंबर के नेता भैयाजी जोशी ने अपनी नाखुशी जाहिर की थी कि मंदिर 2024 में बनेगा. कुल मिलाकर भाजपा की संघ पर निर्भरता बनी रहे, इससे पहले ही मोदी-शाह की जोड़ी ने संघ की वैचारिक सोच से एक कदम आगे चल कर काम करना शुरू कर दिया है जो आगे भी जारी रह सकता है.